Sunday, February 14, 2010

ये जगह वो जगह


इन दिनों फिर मेरे पापा के ट्रांसफर की चर्चा है. उनका ट्रांसफर हर कुछ सालों में होता रहता है. मैं चौदह साल की हूँ और इन सालों में पाँच जगह बदलते देखी हैं मैंने. कुछ दिन पिछली जगह की याद आती है फिर भूल जाती हूँ. पहली बार जब इलाहाबाद से कानपुर पहुँचे तो मैंने पापा से पूछा था कि हम दोस्त क्यों बनाते हैं यदि हमें उन्हें छोड़ना ही होता है.
2004 में मैं एक ऐसी जगह गयी जहाँ मेरे चार साल खूब मजेदार दिन बीते. ये थी पंजाब की जालंधर. मुझे वहाँ की जगहों से, स्कूल से, सहपाठ्यों से और टीचरस से इतना लगाव हो गया कि वहाँ से एक दिन भी दूर जाना अच्छा नहीं लगता था. रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा. प्रति दिन सोचती आज ऑटो में, स्कूल में क्या होगा. खाली समय में क्या खेंलूंगी. मुझे लगता था कि अब जीवन भर जालंधर रहुंगी.
फिर आया 2008 और मुझे पता चला कि पापा का ट्रांसफर हो सकता है. बस इस बात को सुनते ही मैं दुखी हो गयी. मैं, भगवान से मनाती कि ये न हो. एक्जाम हो रहे थे तो मैं उनमें व्यस्त हो गयी. आखिरी एक्जाम के दिन हम खूब खुश थे, एक दो दिन बाद होली थी तो एक दूसरे के रंग लगाया. पापा मुझे स्कूल लेने आये खबर मिली कि हमारा ट्रांसफर लखनऊ हो गया है. मैं खूब दुखी हुयी और रो पड़ी. घर आकर सब फ्रेंडस को फोन किया तो वे सब भी दुखी हुयीं. एक दिन फ्रेंड के जन्मदिन पर सबसे मिली और फिर हमारे जाने का दिन आगया. लकनऊ आयी तो नया स्कूल मिला. शुरू शुरू में क्लास बिल्कुल जंगल लगती थी पर कब मैं भी जंगली बन गयी पता ही नहीं चला.
और पुराने फ्रेंडस ! अरे भाई टेक्नोलोजी ने दुनियां को बेहद छोटा कर दिया है, हम रोज चैट करते हैं और लगता है अभी भी साथ हैं.